Published: 28 अगस्त 2017
भारत में आभूषणों की उत्पत्ति
क्या होता अगर आभूषण बोल पाते ?
तब वे पृथ्वी की गहराई में अपने जन्म से लेकर विभिन्न कर्मशालाओं और कारखानों तक की यात्रा-वृत्तान्त सुनाते. अपने व्यापार, लम्बी दूरियों तक परिवहन, विनिमय, हस्तांतरण के बारे में “हरि अनंत, हरी कथा अनंता” की तर्ज़ पर अपनी आत्मकथा सुनाते. आभूषणों के संसार में क्या कुछ नहीं है – दुनिया भर के भांति-भांति के मनोभाव, संस्कृतियाँ, लोग.
भारत में आभूषणों का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि खुद इस देश का. करीब 5,000 वर्ष पहले, अलंकारों के सहारे सुन्दर दिखने की अभिलाषा से आभूषणों का जन्म हुआ. आभूषणों के प्रति पुरुष और स्त्री, दोनों ही समान रूप से आसक्त थे. ऐसी मान्यता है कि देवताओं ओर देवियों को आभूषणों से अलंकृत किया जाता था, और इसी से लोगों को इसका अनुसरण करने की प्रेरणा मिली. पुराणों एवं वेदों में स्वर्ण आभूषणों से अलंकृत देवताओं और देवियों का आवाहन किया गया है.
समय के साथ, स्वर्ण आभूषण समाज में इसके धारक की आर्थिक अवस्था प्रदर्शित करने का साधन बन गए. जिस स्त्री के पास जितना अधिक स्वर्ण होता था, वह उतनी ही संपन्न मानी जाने लगी. इससे यह अभिप्राय भी निकलता था कि उसका पति उसे अत्यधिक प्यार करता था और उसकी आवश्यकताएं पूरे करने में सक्षम था. स्वर्ण आभूषण बनाने के कला का विकास होता गया और पारंपरिक शैलियों से और अधिक अलंकृत शिल्प, रूपरेखा एवं स्वरुप विकसित होते गए.
धीरे-धीरे स्वर्ण व्यक्ति के मनोभाव की अभिव्यक्ति का एक महत्वपूर्ण साधन बन गया. विशेषकर, कुचिपुड़ी, कत्थक या भरतनाट्यम जैसे विभिन्न नृत्यों के माध्यम से इन भावों को अभिव्यक्ति मिली. नर्तकों और नर्तकियों ने जटिल कलाकृतियों वाले स्वर्ण आभूषण पहनना आरम्भ किया जो नृत्य में उनके लय-ताल और भाव-भंगिमाओं से मेल खाते थे. स्वर्ण राजसी वैभव का भी प्रतीक बन गया. राजपरिवारों ने सबसे कुशल और प्रसिद्ध कारीगरों द्वारा बनाए गए सुन्दर एवं भव्य विरासतों से अपने-अपने महलों को भरकर स्वर्ण की लोकप्रियता को आगे बढाया.
स्वर्ण आभूषणों को परिवार में स्त्री का भविष्य सुरक्षित करने का साधन भी माना जाता है. विवाह के समय बेटियों को उनके माता-पिता द्वारा स्त्रीधन के रूप में स्वर्ण आभूषण दिए जाते हैं, ताकि आर्थिक संकट के समय उनके काम आ सके. मंगलसूत्र, कंगन और मांग टिक्का जैसे कुछ आभूषण स्त्री के विवाहित होने के पारंपरिक प्रतीक होते हैं. इसी प्रकार, नवजात शिशुओं को आशीर्वाद और भविष्य की सुरक्षा के तौर पर मंहगे स्वर्ण आभूषण भेंट किये जाते हैं.
आधुनिक आभूषणों का विकास समाज में बदलाव के साथ क्रमिक रूप से हुआ है. आजकल जटिल और भारी आभूषण वैवाहिक समारोहों, त्योहारों और इस तरह के भव्य आयोजनों में ही पहने जाते हैं. आधुनिक भारतीय स्त्रियाँ दैनिक प्रयोग के लिए हलके और मजबूत स्वर्ण आभूषण पसंद करतीं हैं.
परन्तु, भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में अलग चलन है, जहां लोग अभी भी स्वर्ण को अलंकार और निवेश, दोनों के लिए उपयोग करते हैं. इसका मुख्य कारण यह है कि स्वर्ण को सबसे तरल संपत्ति माना जाता है और भारत के गाँवों में निवेश के दूसरे माध्यमों का अभी भी पूर्ण विकास नहीं हुआ है.
भारत के साथ-साथ पूरे विश्व में स्वर्ण की उत्पत्ति काल से ही इसे व्यापक महत्व मिलता रहा है, और स्वर्ण के प्रति लगाव में कहीं कोई कमी नहीं आयी है. भले ही रूपरेखा और प्रचलन बदलते रहेंगे, लेकिन स्वर्ण का महत्व सदा-सदा के लिए जस का तक बना रहेगा.
तब वे पृथ्वी की गहराई में अपने जन्म से लेकर विभिन्न कर्मशालाओं और कारखानों तक की यात्रा-वृत्तान्त सुनाते. अपने व्यापार, लम्बी दूरियों तक परिवहन, विनिमय, हस्तांतरण के बारे में “हरि अनंत, हरी कथा अनंता” की तर्ज़ पर अपनी आत्मकथा सुनाते. आभूषणों के संसार में क्या कुछ नहीं है – दुनिया भर के भांति-भांति के मनोभाव, संस्कृतियाँ, लोग.
भारत में आभूषणों का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि खुद इस देश का. करीब 5,000 वर्ष पहले, अलंकारों के सहारे सुन्दर दिखने की अभिलाषा से आभूषणों का जन्म हुआ. आभूषणों के प्रति पुरुष और स्त्री, दोनों ही समान रूप से आसक्त थे. ऐसी मान्यता है कि देवताओं ओर देवियों को आभूषणों से अलंकृत किया जाता था, और इसी से लोगों को इसका अनुसरण करने की प्रेरणा मिली. पुराणों एवं वेदों में स्वर्ण आभूषणों से अलंकृत देवताओं और देवियों का आवाहन किया गया है.
समय के साथ, स्वर्ण आभूषण समाज में इसके धारक की आर्थिक अवस्था प्रदर्शित करने का साधन बन गए. जिस स्त्री के पास जितना अधिक स्वर्ण होता था, वह उतनी ही संपन्न मानी जाने लगी. इससे यह अभिप्राय भी निकलता था कि उसका पति उसे अत्यधिक प्यार करता था और उसकी आवश्यकताएं पूरे करने में सक्षम था. स्वर्ण आभूषण बनाने के कला का विकास होता गया और पारंपरिक शैलियों से और अधिक अलंकृत शिल्प, रूपरेखा एवं स्वरुप विकसित होते गए.
धीरे-धीरे स्वर्ण व्यक्ति के मनोभाव की अभिव्यक्ति का एक महत्वपूर्ण साधन बन गया. विशेषकर, कुचिपुड़ी, कत्थक या भरतनाट्यम जैसे विभिन्न नृत्यों के माध्यम से इन भावों को अभिव्यक्ति मिली. नर्तकों और नर्तकियों ने जटिल कलाकृतियों वाले स्वर्ण आभूषण पहनना आरम्भ किया जो नृत्य में उनके लय-ताल और भाव-भंगिमाओं से मेल खाते थे. स्वर्ण राजसी वैभव का भी प्रतीक बन गया. राजपरिवारों ने सबसे कुशल और प्रसिद्ध कारीगरों द्वारा बनाए गए सुन्दर एवं भव्य विरासतों से अपने-अपने महलों को भरकर स्वर्ण की लोकप्रियता को आगे बढाया.
स्वर्ण आभूषणों को परिवार में स्त्री का भविष्य सुरक्षित करने का साधन भी माना जाता है. विवाह के समय बेटियों को उनके माता-पिता द्वारा स्त्रीधन के रूप में स्वर्ण आभूषण दिए जाते हैं, ताकि आर्थिक संकट के समय उनके काम आ सके. मंगलसूत्र, कंगन और मांग टिक्का जैसे कुछ आभूषण स्त्री के विवाहित होने के पारंपरिक प्रतीक होते हैं. इसी प्रकार, नवजात शिशुओं को आशीर्वाद और भविष्य की सुरक्षा के तौर पर मंहगे स्वर्ण आभूषण भेंट किये जाते हैं.
आधुनिक आभूषणों का विकास समाज में बदलाव के साथ क्रमिक रूप से हुआ है. आजकल जटिल और भारी आभूषण वैवाहिक समारोहों, त्योहारों और इस तरह के भव्य आयोजनों में ही पहने जाते हैं. आधुनिक भारतीय स्त्रियाँ दैनिक प्रयोग के लिए हलके और मजबूत स्वर्ण आभूषण पसंद करतीं हैं.
परन्तु, भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में अलग चलन है, जहां लोग अभी भी स्वर्ण को अलंकार और निवेश, दोनों के लिए उपयोग करते हैं. इसका मुख्य कारण यह है कि स्वर्ण को सबसे तरल संपत्ति माना जाता है और भारत के गाँवों में निवेश के दूसरे माध्यमों का अभी भी पूर्ण विकास नहीं हुआ है.
भारत के साथ-साथ पूरे विश्व में स्वर्ण की उत्पत्ति काल से ही इसे व्यापक महत्व मिलता रहा है, और स्वर्ण के प्रति लगाव में कहीं कोई कमी नहीं आयी है. भले ही रूपरेखा और प्रचलन बदलते रहेंगे, लेकिन स्वर्ण का महत्व सदा-सदा के लिए जस का तक बना रहेगा.