Published: 02 फ़रवरी 2018
मोहरें : स्वर्ण विनिमय दर की दो सदियाँ
अगर मैं कहूं कि मुद्रा विनिमय की एक ऐसी दर है जो 19वीं सदी के ब्रिटिश भारत के समय से यथावत बनी हुयी है, तो आप क्या कहेंगे?
केंद्रीय बैंक इस कथन पर ऊंगली उठाये इससे पहले यह जानना ज़रूरी है कि हम जिस मुद्रा की बात कर रहे हैं वह एक बेहद ख़ास लोगों की समूह द्वारा ही इस्तेमाल किया जाता है – असल में उनके अलावा और किसी के लिए इसका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है.
यह मुद्रा मोहर है, एक स्वर्ण मुद्रा जिसे मुग़ल साम्राज्य के समय से विभिन्न सरकारों द्वारा आधिकारिक रूप से ढाला गया और बाद में इसे नेपाल की राजशाही द्वारा, भारत में शासन के दौरान अंग्रेजों के द्वारा और उस समय उनके साथ मौजूद अनेक रजवाड़ों द्वारा अपनाया गया.
आज, बॉम्बे उच्च न्यायालय के वरीय वकील, जिन्हें न्यायपालिका द्वारा अत्यंत अनुभवी वकीलों के समूह के रूप में मान्यता दी गयी है, संभवतः एकमात्र कर्मचारी समूह हैं जिन्हें तकनीकी तौर पर अभी भी स्वर्ण मोहरों में भुगतान किया जा रहा है.
उनकी ऊंची हैसियत और सम्मान के कारण मुख्तार लोग वरीय वकीलों की फीस रुपयों में नहीं, बल्कि स्वर्ण मोहरों में दर्ज करते हैं. इन स्वर्ण मोहरों को अंग्रेजों द्वारा गिन्नी भी कहा जाता था और इन्हें 180 वर्ष से भी पहले तय की गयी दर पर भारतीय रुपये में बदला जाता है, जिसने 1 स्वर्ण मोहर भारतीय मुद्रा में 15 रुपये के बराबर होता है.
फ्रेड प्रीडमोर लिखित द कॉइन्स ऑफ़ द ब्रिटिश कॉमनवेल्थ ऑफ़ नेशंस के अनुसार यह दर 1835 में तय की गयी थी, जब अंग्रेजों ने सम्पूर्ण कामनवेल्थ में एक आम मुद्रा लागू की थी. इसका उद्देश्य “उनके अपने बंगाल सूबे में निर्धारित 16 रुपये मान के स्वर्ण मोहर और बॉम्बे एवं मद्रास सूबे में 15 रुपये मान के स्वर्ण मोहर के बीच विसंगति को दूर करना था.”
ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के शैलेन्द्र भंडारे ने एक अखबार में लिखा कि यह दर मुगलों द्वारा पहली बार अपनाई गयी स्वर्ण मुद्रा की दर से थोड़ा ही अधिक था. भंडारे के अनुसार, “अकबर के शासन काल में मोहर और रुपये की विनिमय दर 9 और 10 के बीच थी, किन्तु नयी वैश्विक चांदी के आगमन से यह सस्ता हो गया और शीघ्र ही मोहर का भाव 15 रुपये हो गया.”