Published: 04 सितंबर 2017
स्वर्ण : भारतीय पुराण शास्त्र का आरोग्यसाधक
प्राचीन एवं तात्त्विक परम्पराओं से “आरोग्य” के दायरे में समस्या समाधान की आध्यात्मिक पद्धति का विकास हुआ.
प्राचीन भारतीय संस्कृतियों ने प्रकृति से प्रेरणा और सीख ली. उस समय के लोग वन को देवता मानते थे. उनका मानना था कि जीवन, भोजन और आरोग्य के लिए सभी आवश्यक वस्तुएं वन में ही प्राप्त हो सकती हैं. वे सभ्यता के प्रथम मानव थे जिन्होंने यह खोज की, कि हमारी सृष्टि में ऊर्जा सभी चीजों की वास्तविक प्राण शक्ति है. उन लोगों ने ऊर्जा को भौतिक शरीर से इतर भी उच्च स्थान दिया. उनलोगों ने स्फटिकों, धातुओं और वनस्पतियों का उनके “प्रकाशीय पदार्थों” और प्रभामंडल की आणविक क्रियाशीलता में परिवर्तन की कला सीख ली थी.
प्रभामंडल आत्मा के अंगों का भौतिक निरूपण है जो मानव के लिए उसकी भौतिक काया में अगम्य हैं. मानव के लिए अपने अनुभवों में परिवर्तन की सबसे स्पष्ट विधि. मानसिक आघात के संचय को उनके प्रभामंडल में विलीन कर देना और उनके संरेखित चक्रों से मिलने वाली अलग-अलग शक्ति को प्राप्त करना है.
काया में सात चक्र होते हैं. इन चक्रों के संरेखन को जाग्रत करने के लिए संगीत की आवृत्ति, प्राकृतिक तत्वों का अनुभव, स्फटिकों और स्वर्ण जैसे धातुओं का प्रायः प्रयोग किया जाता है. ऐसा करने से काया में विपुल अविचलित ऊर्जा का प्रवाह उत्पन्न होता है जो निर्बाध रूप से सम्पूर्ण काया में प्रवाहित होती है. निर्मल मन के साथ जीव की यह अवस्था जीवन की चरम और सर्वाधिक सकारात्मक अवस्थाओं में से एक मानी जाती है. इसे वास्तविक बुद्धि और ग्राह्यशीलता के रूप में देखा जाता है क्योंकि इससे मानव में सांस्कृतिक अथवा बाह्य आदर्शों के साथ बलात सामंजस्य स्थापित करने के बजाय स्वीकार करने, अभिव्यक्त करने और अपनी वैयक्तिक कल्याण की रक्षा करने की शक्ति प्राप्त होती है और बदले में वे स्वतंत्र रूप से अपनी शान्ति एवं उत्पादकता की उच्चतम शक्ति प्राप्त कर सकते हैं.
प्राचीन तत्त्ववेत्ताओं के अनुसार, बहुमूल्य धातु चक्रों को संरेखित करने में सहायक होते हैं और व्यक्तियों को दैनिक क्रियाओं के बीच सहजतापूर्वक भावातीत एवं अतीन्द्रिय बोध प्राप्त होता है. स्वर्ण वह प्राचीनतम द्रव्य है जिसे काया पर प्रकाश पदार्थ के संतुलन एवं आरोग्य के लिए प्रयोग में लाया जाता रहा है. फलस्वरूप, आरोग्य की शीघ्रता बढ़ती है और चक्र खुल जाते हैं. इसके अतिरिक्त विकिरण, रासायनिक परीक्षण और वायुमंडल, आहार एवं वैयक्तिक भावनात्मक अनुभवों से काया में एकत्रित विषाक्तता से हुयी क्षति ठीक हो जाती है.
न केवल अर्थ एवं सौन्दर्य के उद्देश्य से, बल्कि प्राच्य एवं तात्त्विक संस्कृतियों में एक अत्यंत शक्तिशाली धातु के रूप में भी स्वर्ण सदैव महत्वपूर्ण रहा है. स्वर्ण को ह्रदय चक्र, कंठ चक्र, त्रिनेत्र चक्र, और शीर्ष चक्र सहित उच्चतर चक्रों की शक्ति-सम्पन्नता के साथ जोड़ा जाता रहा है. इसके भीतर उष्ण ऊर्जा रहती है जिससे काया में सुखद स्पंदन उत्पन्न होता है और आरोग्य प्रक्रिया तीव्र होती है. अनेक संस्कृतियों में ऐसी मान्यता थी कि स्वर्ण को काया के अंगों पर रखने से कोशिकाओं का पुनरुद्धार तीव्र किया जा सकता है और स्वर्ण से उत्पन्न सुखद स्पंदन के द्वारा कोशिकाओं की सहज वृद्धि में मदद मिल सकती है. यह भी माना जाता है कि स्वर्ण धमनियों में सहज रक्त प्रवाह को गतिशील करता है.
एक और रोचक उदाहरण यह है कि प्राचीन जापानी संस्कृति में सूचिवेध चिकित्सा (एक्यूपंक्चर) में स्वर्ण की सूई का प्रयोग होता था. आज भी अनेक लोग इस चिकित्सा पद्धति को पसंद करते हैं, क्योंकि विज्ञान के आधुनिक दौर में भी, सुसंगत विधि अपनाने पर इससे चमत्कारिक आरोग्य होता है.