Published: 08 फ़रवरी 2018
स्वर्ण के नथ
नाक की बाली या नथ भारत में सदियों से पसंदीदा आभूषण रही है.
अनेक इतिहासकारों का मानना है कि नथ की शुरुआत मध्य पूर्व में हुयी थी और मुगलों ने भारत के लोगों को इसका परिचय दिया था, किन्तु नथ के 5000 वर्ष पुरानी होने के कुछ साक्ष्य उपलब्ध हैं, जैसा कि देवी पार्वती और भगवान कृष्ण के चित्रों से पता चलता है.
हम निश्चित तौर पर कह सकते हैं कि 9वीं और 10वीं सदी में नथ का प्रचलन बढ़ा और यह स्त्री के वैवाहिक प्रतीक का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गयी. राजाओं, मंत्रियों और धनी परिवार की पत्नियां अपने धन और उच्च आर्थिक हैसियत के प्रदर्शन के लिए मोती, नीलम और कुंदन जडित स्वर्ण नथ पहनती थीं.
15वीं सदी में स्वर्ण आभूषण का प्रचलन बढ़ने के साथ इनके आकार और बनावट में विविधता आती गयी और तब से इनका क्रमिक विकास जारी है.
भारत में संस्कृति और क्षेत्र के अनुसार नथ की प्रतीकात्मकता अलग-अलग है. महाराष्ट्र में स्त्रियाँ आम तौर पर बड़े आकार की नथ पहनती हैं, जो उनके चेहरे एक पार्श्व पर पूरी फैली रहती है. बंगाली स्त्रियाँ नासिका का पट (नासिकाओं के बीच) छिदवा कर नथ पहनना पसंद करती हैं. पूर्वोत्तर क्षेत्र में कुमायूँनी और गढ़वाली स्त्रियाँ विशेष तौर पर अपनी शादी के दिन अलंकृत स्वर्ण नथ पहनती हैं.
देश भर में सभी खूबसूरत नथों में गढ़वाल की ‘टिहरी नथ’ की सुन्दरता सबसे अलग है, जिसे देख कर लोग आश्चचर्यचकित रह जाते हैं. छोटे आकार की कुमायूँनी नथ की तुलना में गढ़वाली नथ काफी बड़ी होती हैं. इन्हें स्वर्ण से ढाला जाता है और ये प्रायः रूपांकन, मयूर और फूलों जैसे व्यापक डिजाईन से जड़ित होती है. अन्य नथों की अपेक्षा इसमें काफी अधिक स्वर्ण होने के कारण उत्तराखंड में इसे दुल्हन के दहेज़ के रूप में मूल्यवान आभूषण माना जाता है. इसे दुल्हन की पवित्रता और कौमार्य का प्रतीक माना जाता है.
आजकल नथ का एक बार पुनः प्रचलन बढ़ रहा है, जैसा कि पूरे विश्व की विभिन्न संस्कृतियों में भारत की अति प्रिए नथ (नाक की बाली) अपनाई जा रही है. स्वर्ण बालियाँ केवल स्त्रियों के पहनावे का एक मूल्यवान धातु ही नहीं है, बल्कि इसके साथ बहुमूल्य भावनाएं भी जुड़ी हैं.