Published: 20 फ़रवरी 2018
आजादी के बाद के प्रथम दसक में भारत की स्वर्ण नीति
1947 में भारत की विदेशी मुद्रा भण्डार लगभग 2 मिलियन पौंड का था. 1947 से 1962 तक भारत में नीति स्वर्ण बाज़ार पर नियंत्रण की दिशा में निर्देशित रही. 25 मार्च 1947 को आयात और निर्यात (नियंत्रण) अधिनियम लागू किया गया. 1947 में ही सरकार ने नियंत्रण का एक और क़ानून, विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम लागू किया. लेकिन स्वर्ण की मांग काफी ज्यादा थी, जिसके कारण अवैध पारगमन और तस्करी बढ़ने लगी.
भारतीय सरकार ने स्वर्ण आयातों पर प्रतिबन्ध लगा दिया और एक नयी लाइसेंसिंग व्यवस्था लागू की. दोनों में से किसी का भी वांछित असर नहीं हुआ और तस्करी और भी ज्यादा बढ़ गयी. 1947 में स्वर्ण की कीमत 88 रुपये 62 पैसे प्रति 10 ग्राम थी. प्रतिबन्ध की घोषणा के बाद कीमत में कोई कमी नहीं हुयी. 1949 में यह कीमत बढ़ कर 95 रुपये 87 पैसे हो गयी, लेकिन 1955 में गिर कर 79 रुपये 18 पैसे पर आ गयी.
भारत की आज़ादी के बाद के पहले 15 वर्ष की अवधि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन सहित युरोप के पुनर्निर्माण की अवधि भी थी. यह पुनर्निर्माण संयुक्त राज्य अमेरिका की कथित मार्शल प्लान के तहत हो रहा था. तब, विश्व एक स्वघोषित स्वर्ण मान पर काम कर रहा था, क्योंकि अमेरिकी डॉलर का मूल्य इसी पर आधारित था. इन परिस्थितियों में देश की ज़रुरत के लिए भारत को कोई ख़ास सहायता नहीं मिल पा रही थी.
भारत सरकार ने 1956 में कोलार स्वर्ण खदान का राष्ट्रीयकरण किया, जहाँ से भारत का 95 प्रतिशत स्वर्ण निकलता था. लेकिन खदानों में उत्पादन कम होने लगा. 1958 में सरकार ने गैर-सरकारी भण्डार के रूप में खदान से घरेलू उत्पादन बनाए रखने की कोशिश की. उस वक्त स्वर्ण की कीमत 90.81 रुपये प्रति 10 ग्राम थी, जो 1963 में 97 रुपये प्रति 10 ग्राम पर पहुँच गयी. चूंकि मांग में उछाल जारी रहा, सो तस्करी बढ़ने लगी.
अनुमान बताते हैं कि भारत में 1948-49 के दौरान लगभग 27.36 टन स्वर्ण की तस्करी होती थी. यह बढ़ कर 1950-51 में 35.35 टन और 1952-53 में 53.27 टन हो गयी. किन्तु 1955-56 में तस्करी में 50 प्रतिशत से ज्यादा की कमी हुयी तो और घटकर 26.27 टन हो गया. लेकिन यह गिरावट बस थोड़े समय के लिए थी. 1958 और 1963 के बीच लगभग 520 टन स्वर्ण अनाधिकारिक रूप से आयात किया गया. स्वर्ण से बढ़िया और हो भी क्या सकता था.