Published: 20 फ़रवरी 2018
विभिन्न काल खण्डों में भारतीय स्वर्ण आभूषण की अवस्था
ऐसी कोई भारतीय स्त्री मिलना मुश्किल है जो स्वर्ण आभूषण से प्रेम नहीं करती हो. स्वर्ण के प्रति हमारा आकर्षण 5,000 वर्ष पहले सिन्धु घाटी सभ्यता के दौरान आरम्भ हुआ. भारत में स्वर्ण आभूषणों के इतिहास में खुद देश के इतिहास का विवरण समाहित है. भारतीय आभूषण सांस्कृतिक इतिहास और इसके सौंदर्य की असाधारण अभिव्यक्ति है. साहित्य, पौराणिक कथाओं, वृत्तांतों, किंवदंतियों और ग्रंथों से समर्थित परम्परा के साक्ष्य के ये अध्याय विश्व में बेमिसाल हैं.
आइये, विभिन्न कालखंडों के दौरान भारतीय आभूषणों की विकास यात्रा पर एक गहरी नजर डालते हैं :
सिन्धु घाटी सभ्यता (2600 से 1900 ईसा पूर्व का काल)
सिन्धु घाटी सभ्यता में लोगों का सौंदर्य बोध, जटिल अभियांत्रिकी कौशल, और विशेषज्ञता अच्छी तरह विकसित हो चुका था. प्रौद्योगिकी कुशलता से भी बढ़कर, अचंभित करने वाली एक चीज है देश के अलग-अलग हिस्सों में डिजाईन के अविच्छिन्नता. राजस्थानी बोरला की उत्पत्ति सिन्धु घाटी के उस आभूषण से हुयी जिसे ललाट पर धारण किया जाता था और स्वर्ण फलक से बना होता था. यह आभूषण प्राचीन मूर्तियों में से एक, दीदारगंज यक्षिणी के ललाट पर दिखाई देता है.
संगम काल (ईसा पूर्व 4थी सदी से 2री सदी तक)
मोहनजोदड़ो के पतन के बाद, भारतीय आभूषण और अधिक कोमल एवं जटिल हो गयी. संगम काल के तमिल साहित्य के पांच महान ग्रंथों में से एक, सिलाप्पदिकरम में एक समाज का आख्यान है जो स्वर्ण, कीमती रत्नों और मोतियों का कारोबार करता था. एक पुर्तगाली यात्री ने अपने वृत्तान्त में विजयनगर साम्राज्य में लोगों द्वारा पहने जाने वाले सम्मोहक आभूषणों का विस्तृत विवरण दिया है. माणिक और पन्ना जडित ये जटिल, सुघड़ आभूषण पहले केवल मंदिरों में मूर्तियों को सजाने के लिए बनाए जाते थे. किन्तु समय के साथ जब भरतनाट्यम का व्यापक प्रसार हुआ, तब मंदिरों के इन आभूषणों को नर्तक भी धारण करने लगे और कालक्रम में यह आम लोगों और दुल्हनों के लिए भी प्रचलित हो गया.
मुग़ल काल (1526 – 1857)
मुगलों का संरक्षण मिलने के बाद परम्परागत भारतीय आभूषण और भी अलंकृत हो गए और इनके निर्माण में नवोन्मेषी तकनीकों का प्रयोग होने लगा. भारतीय शिल्पकला के साथ मध्य एशियाई शैली की मेल के फलस्वरूप अत्यंत आकर्षक, भड़कीले और उत्कृष्ट आभूषण सामने आए, जैसा दुनिया ने पहले कभी नहीं देखा था. प्राचील तक्षशिला नगर में आभूषणों पर मीनाकारी का काम आरम्भ हुआ. यह तकनीक मुगलों के संरक्षण में परवान चढी. आगे चल कर इन प्राचीन भारतीय बनावटों में रूपांतरण हुआ और इनमें प्रकृति के प्रेरित फूलों, और ज्यामितीय रूपरेखा का समावेश हुआ. भारतीय कारीगरों ने मुग़ल कुंदन और जडाऊ तकनीकों में महारत हासिल की और अपनी खुद की विशिष्ट डिजाईन बनाने में अपनी अनुपम कला का समावेश किया.
अंगरेजी काल (1858 – 1947)
उन्नीसवी और आरंभिक बीसवीं शाताब्दी में भारतीय आभूषणों की रूपरेखा पर देश के औपनिवेशिक शासन का प्रभाव पर पड़ने लगा. प्रतिष्ठित यूरोपीय आभूषण निर्माता कार्टिअर ने महाराजों के लिए आभूषण बनाना आरम्भ किया. सहज ही, इसके दूसरे नतीजे भी सामने आये. जैसे कि, कार्टिअर की लोकप्रिय “टुट्टी फ्रुट्टी” शैली पर माणिक, पन्ना और नीलम जडित दक्षिण भारतीय पुष्प आकृतियों का प्रभाव था.
यद्यपि भारतीय आभूषणों की विकास यात्रा काफी लम्बी है, किन्तु इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इस यात्रा से स्वर्ण का आकर्षण बढ़ा है और इसके प्रति ललक में वृद्धि हुयी है. आधुनिक समय में, हालांकि आधुनिक शैली पर आधारित नयी-नयी डिजाईनों का जन्म हुआ है, फिर भी हर किसी को सम्मोहित करने वाली जटिल और उत्कृष्ट डिजाइनें बेमिसाल हैं.