Published: 09 फ़रवरी 2018
जब स्वर्ण ने संकट से उबारा
भारत के इतिहास में 1991 सदा-सदा के लिए एक ऐसे वर्ष के रूप में अमिट रहेगा. उस वर्ष हमारे देश ने मृतप्राय आर्थिक नीति के दसकों पुराने दौर से बाहर निकलते हुए भारत की आर्थिक शक्ति को बंधनमुक्त करने के दौर में प्रवेश किया था. किन्तु इसके पहले वाले वर्ष, 1990 में राजनीतिक रूप से नाटकीय और आर्थिक रूप से सदमे की अवस्था थी जब वर्ष के अंत में संकट के कगार पर था. तब स्वर्ण बड़ा काम आया था.
जून 1989 से – जब दिल्ली में कांग्रेस सरकार की जगह एक नयी सरकार आयी – राजनीतिक अस्थिरता का आलम था और सारा नीति निर्माण भ्रम का शिकार था. सितम्बर 1990 में प्रधान मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार को भारी आयात और कम निर्यात से उत्पन्न भुगतान संतुनल के संकट का आभास हो चला था.
सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) का दरवाजा खटखटाया और भारत के अंतर्राष्ट्रीय भुगतान दायित्वों को पूरा करने के लिए लगभग 550 मिलियन डॉलर का क़र्ज़ लिया. किन्तु भुगतान संतुलन के कारणों को दूर करने की दिशा में कोई सुधारात्मक उपाय नहीं किये गए. उस दशा में हालात और भी बुरे हो गए : राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार गिर गयी और चन्द्र शेखर ने नवम्बर 1990 में राजीव गाँधी के कांग्रेस के समर्थन से अपनी अल्पमत सरकार बनायी.
जनवरी 1991 के आते-आते, तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने दो ऋण स्वीकृत करने के लिए आइएमएफ को राजी किया – पहला, प्रथम ऋण क़िस्त के अंतर्गत 775 मिलियन डॉलर और दूसरा आइएमएफ के प्रतिपूरक एवं आकस्मिक वित्तपोषण सुविधा के अंतर्गत 1.02 बिलियन डॉलर का कर्ज. आइएमएफ को उनकी सरकार ने वचन दिया कि फरवरी 1991 में प्रस्तुत होने वाले वार्षिक बजट के द्वारा आर्थिक सुधार आरम्भ किया जाएगा.
फरवरी के मध्य में कांग्रेस पार्टी ने सरकार से समर्थन वापस ले लिए और इस तरह सरकार के सामने 28 फरवरी को पूर्ण बजट प्रस्तुत करने की स्थिति नहीं रही. चुनाव की घोषणा हो गयी, जिसकी लम्बी प्रक्रिया मई 1991 के पहले पूरी नहीं होने वाली थी. जून के पहले किसी सरकार के शपथ ग्रहण की संभावना नहीं होने के कारण भुगतान संतुलन की स्थिति बद से बदतर हो गयी.
अप्रैल 1991 में आइएमएफ-विश्व बैंक की वसंतकालीन बैठक में भारत के वित्त सचिव, एस पी शुक्ला, और आरबीआई के गवर्नर एस वेंकिटरमणन या दोनों संस्थानों से यूएस, जापान, जर्मनी, यूके, फ्रांस एंड नीदरलैंड्स के गठित एड इंडिया कांफ्रेंस से कर्ज के लिए भारत के अनुरोध का समर्थन करने को कहा.
राजनीतिक कारणों से सुधार का वादा पूरा करने में भारत की असफलता को लेकर आम नाराजगी थी. भारत सहायता संघ के सदस्य देशों से 700 मिलियन डॉलर का अंतरिम ऋण मांग रहा था. अपने पक्ष में जनमत बनाने का कुछ नतीजा निकला और कुछ दिनों के बाद जापान ने 159 मिलियन डॉलर का सुलभ ऋण दे दिया और आगे 350 मिलियन डॉलर और देने का भरोसा दिया. जर्मनी ने लगभग 400 मिलियन डॉलर और नीदरलैंड्स ने 30 मिलियन डॉलर स्वीकृत किया.
इससे विदेशी मुद्रा भण्डार 1 बिलियन डॉलर के महत्वपूर्ण स्तर के ऊपर आ गया, किन्तु उद्योग के सामने आयात का दबाव काफी बढ़ गया. विदेशी आपूर्तिकर्ता भारतीय बैंकों द्वारा जारी साख पत्र को किसी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठित बैंक गारंटी के बगैर मानने से इनकार करने लगे. मई की शुरुआत में सरकार ने आयात वित्त पर 25 प्रतिशत अधिभार लगा कर बैंक ऋण पर नयी सीमा थोप दी.
संकट गहराता गया और एक बार फिर सरकारी अधिकारी मई 1991 के दूसरे सप्ताह में 700 मिलियन डॉलर का अंतरिम ऋण मांगने आइएमएफ के पास पहुंचे. इस ऋण का उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय भुगतान में चूक से भारत को बचाना था. यह इतना गंभीर मामला था कि आइएमएफ से ऋण लेने की अनिवार्यता के सवाल पर तमाम राजनीतिक दलों के बीच सहमति के सिवाय कोई चारा नहीं था. राजीव गाँधी, एल के आडवाणी, वी पी सिंह और चन्द्र शेखर, सभी ने इसके पक्ष में बात कही.
लेकिन तभी एक दुखद घटना हो गयी. चुनाव प्रचार के बीच 21 मई को राजीव गाँधी की ह्त्या हो गयी और देश में राजनीतिक तूफ़ान खडा हो गया. मतदान की बची तिथियों को दोबारा तय करना पडा, और जून के अंत के पहले कोई सरकार बनने की स्थिति नहीं रही. विश्व बैंक और आइएमएफ ने भारत को सहयोग देने की पुष्टि करते हुए वक्तव्य जारी किया, किन्तु जब तक सरकार का गठन नहीं हो जाता, नया ऋण मिलने की कोई संभावना नहीं थी.
विदेशी मुद्रा भण्डार 1 बिलियन डॉलर के स्तर से नीचे आ गया, और चन्द्र शेखर सरकार ने एक ऐसा बड़ा कदम उठाया जो शायद कोई कार्यवाहक सरकार नहीं उठा सकती थी : सरकार ने 20 टन स्वर्ण बेचने का फैसला किया, इस शर्त के साथ कि इसे छः महीने के बाद वापस खरीद लिया जाएगा. इसके बदले में सरकार को 240 मिलियन डॉलर प्राप्त हुए. 30 मई को बिक्री हुयी और सम्पूर्ण प्रक्रिया गोपनीय ढंग से भारतीय स्टेट बैंक द्वारा संचालित की गयी. तात्कालिक तौर पर ही सही, स्वर्ण ने देश को संकट से उबार लिया था.