Published: 20 फ़रवरी 2018
ओलिंपिक स्वर्ण जीतने के लिए भय पर जीत
रियो ओलिंपिक 2017 में दुनिया भर के करीब 80,000 प्रशंसकों के सामने भारत के प्रथम ओलिंपिक स्वर्ण पदक विजेता, निशानेबाज अभिनव बिंद्रा ने उत्साहपूर्वक भारतीय ध्वज लहराया. जैसे ही एक सिद्धहस्त खेल नायक ने देश का गौरव बढ़ाया, कि मारैकन स्टेडियम में थोड़ी संख्या में मौजूद भारतीय दर्शक अपने खिलाडियों का जयकार करने लगे. अनेक लोग उसके फिर से जीतने की उम्मीद कर रहे थे.
अखबार जब क्रिकेट की खबरों से भरे हों, तब फुटबाल के उभरते खिलाड़ियों, गाँवों के पहलवानों और शहरों के मुक्केबाजों की उपलब्धियों को भुला देना आसान होता है. इसका कुछ कारण खुद खेल में ही छिपा हो सकता है, तो कुछ उस व्यक्ति में हो सकता है जो गुमनाम जीवन जीता है. जैसा कि उसने पहले कहा था, कि उसमें कर्मठता और ईमानदारी के साथ नियमित अभ्यास करने के अलावा कोई प्रतिभा नहीं है.
एक विलक्षण बालक के रूप में वह 18 वर्ष की उम्र में अर्जुन पुरस्कार और 19 की उम्र में राजीव गाँधी खेल रत्न प्राप्त कर चुका था. लेकिन उसने दुनिया के सामने अपनी पहचान का झंडा बीजिंग ओलिंपिक में बुलंद किया, जब वह 10 मीटर एयर राइफल प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीतने वाला पहला भारतीय बनकर इतिहास में अपना नाम दर्ज किया. 1980 में भारत की पुरुष हॉकी टीम ने यह शीर्ष सम्मान हासिल किया था और उसके बाद भारत का यही पहला स्वर्ण पदक था. एक व्यक्तिगत स्वर्ण पदक विजेता के लिए भारत का दुखदाई इन्तजार समाप्त हुआ. उस समय भारतीय ओलिंपिक संघ के महासचिव और पूर्व निशानेबाज, रणधीर सिंह ने ठीक ही कहा था कि, “मैंने अपने जीवन में इतनी दुआ कभी नहीं की थी. द्वितीय अंतिम गोली बराबरी पर छूती और फिर उसने 10.8 मीटर का निशाना लगा दिया. इससे बढ़िया और कुछ नहीं हो सकता था.”
खेल उपलब्धियों के लिए लालायित एक राष्ट्र के लिए अभिनव की उपलब्धि ने अनेक लोगों को आनंदातिरेक से अभिभूत कर दिया. अंततः, खेल को एक नयी रोशनी मिल गयी. बल्कि, यह पूछा जाने लगा कि भारत में अधिक खेल नायक क्यों पैदा नहीं होते?
अपना सपना पूरा करने के लिए बिंद्रा ने कोई कसर बाकी नहीं रहने दी और अपना डर मिटाने के लिए 40 फीट ऊंचे ‘पिजा पोल’ भी पार किया. पत्रकार दिग्विजय सिंह देव और अमित बोस द्वारा सह-लिखित ‘माय ओलिंपिक जर्नी’ नामक पुस्तक में बिंद्रा ने कहा, “मैंने सुविधा-भरी ज़िंदगी से बाहर निकल कर पिज़्ज़ा पोल पर चढ़ने का फैसला किया, जो जर्मन स्पेशल फ़ोर्स द्वारा इस्तेमाल किया जाता है. यह 40 फीट ऊंचा पोल होता है और जैसे-जैसे आप शिखर के करीब होते जाते हैं, यह छोटा होता जाता है, जिसके शीर्ष पर एक पिज़्ज़ा बॉक्स के आकार का प्लेटफार्म होता है.
“मैंने चढ़ना आरम्भ किया और आधी ऊंचाई पर जाकर लगा कि अब आगे नहीं जा सकूंगा. लेकिन इस कोशिश के पीछे ठीक यही कारण था. मुझे डर को परास्त करना था, वह डर जो ओलिंपिक फाइनल में मुझे अपनी गिरफ्त में ले सकता था. मैंने जोर लगाया और आखिरकार कांपते पैरों से शीर्ष पर खडा था.
“फिर भी यह (पिज़्ज़ा पोल) एक शानदार अनुभव था, क्योंकि इससे मुझे अपनी कुशलता और धैर्य बढाने में मदद मिली – जो निःसंदेह एक ओलिंपिक चैंपियन के लिए आवश्यक होता है.” यह सब मैंने स्वर्ण पदक जीतने और अपने देश को गौरवान्वित करने के लिए किया.