Published: 28 अगस्त 2017

अंग्रेजों के जमाने से प्रचलित स्वर्ण के सिक्कों पर एक नज़र

प्राचीन काल के विपरीत, आधुनिक भारत में कागजी नोट्स और ‘प्लास्टिक मुद्रा’ का वर्चस्व है और सिक्कों का प्रयोग यदा-कदा ही होता है. परन्तु प्राचीन काल में स्थिति बिलकुल अलग थी. तब सिक्के ही व्यापार के साधन हुआ करते थे. इन्हें शासक राजवंशों द्वारा जारी किया जाता था और इनका व्यापक प्रयोग किया जाता था. ऐसा कहा जाता है कि सिक्कों का प्रथम निर्माण ईसा पूर्व छठी शताब्दी में हुआ था. उस समय के सिक्के शंख और विभिन्न धातुओं से बनाए जाते थे. जैसे-जैसे राजवंशों का धन बढ़ता गया, उनलोगों ने स्वर्ण से बने सिक्के जारी करना आरम्भ किया. यह सिलसिला 17वीं शताब्दी में भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी (ईआइसी) के पदार्पण तक चलता रहा. उसके बाद अंग्रेज़ी राज में जारी सिक्कों को दो काल में वर्ग्रीकृत किया गया है – एक, 1835 के पहले के काल में ईस्ट इंडिया कंपनी के सिक्के और दूसरा, उसके बाद का सम्राट काल, जब भारत पर प्रत्यक्ष रूप से अंग्रेज़ी राज स्थापित हो गया था.
 
ईआइसी ने अलग-अलग शहरों में अपने उपनिवेश स्थापित किये, जिन्हें ‘प्रेजिडेंसी’ (सूबा) कहा जाता था, जैसे कि मद्रास प्रेजिडेंसी, बॉम्बे प्रेजिडेंसी, बंगाल (कोलकता) प्रेजिडेंसी. ईआइसी ने अपने प्रत्येक प्रेजिडेंसी के लिए अलग-अलग सिक्के जारी किये. बॉम्बे में जारी सिक्कों पर एक तरफ हृदयाकार पोटली का और दूसरी तरफ  एक तराजू का चित्र उत्कीर्ण था. ये सिक्के टकसाली कारीगरी के उत्कृष्ट उदाहरण है जिसमें बेदाग़ सतह पर अपेक्षित रूप-रेखा बनी.
 
1857-58 में जब ब्रिटिश-भारत की सत्ता ईआइसी के हाथों के निकल कर ब्रिटिश राज के अधीन हो गयी, उसके बाद उनके शासनाधीन सभी क्षेत्रों में एक समान सिक्के जारी किये गए. यह अंग्रेज़ी साम्राज्य का काल था. राज द्वारा अनेक सिक्के जारी किये गए जिनके अग्र-रुख पर शासक ब्रिटिश राजाओं और महारानियों के चित्र उत्कीर्ण किये गए थे. इनमें महारानी विक्टोरिया के चित्र की प्रमुखता थी. 1862 में, प्रथम स्वर्ण सिक्के पर महारानी विक्टोरिया का राजमुकुटधारी बस्ट (वक्ष के ऊपर का हिस्सा) उत्कीर्ण था. इन सिक्कों को मोहर (स्वर्ण मुद्रा) कहा जाता था. इन सिक्कों का वजन 11.66 ग्राम या एक “तोला” होता था और इनकी शुद्धता 0.9167 स्तर (ईआइसी द्वारा जारी स्वर्ण के सिक्के से सामान) की थी. भारतीय व्यापार के लिए इन्ही सिक्कों को प्रचलित किया गया. एक मोहर का मूल्य चांदी के पंद्रह रुपयों के बराबर था. परन्तु, कम टंकण होने के कारण, अन्य धातु के सिक्कों के अपेक्षा मोहर का अभाव बना रहता था.
 
महारानी के चित्र के साथ “क्वीन विक्टोरिया” शब्द उत्कीर्ण किए गए थे. 1876 में महारानी विक्टोरिया को ‘भारत की साम्राज्ञी’ (एम्प्रेस ऑफ़ इंडिया) की उपाधि मिलने के बाद इन शब्दों को बदल कर उनकी जगह “विक्टोरिया एम्प्रेस” लिखा जाने लगा.
 
महारानी विक्टोरिया के चित्र वाले सिक्के आज भी, विशेषकर दक्षिण भारत में, आभूषणों में लटकन के रूप में या गले के हार के रूप में काफी प्रयोग किये जाते हैं. भारतीय सिक्कों में भारतीय-ब्रिटिश काल के स्वर्ण सिक्कों का महत्व हमेशा बना रहेगा.