Published: 12 मार्च 2018
स्वर्ण नियंत्रण अवधि
1960 के दसक में, वांछित परिणाम नहीं मिलने से स्वर्ण बाज़ार में अधिक नियंत्रण की स्थिति बनी. इस तरह, 1963 से रोक का जो सिलसिला आरम्भ हुआ वह और बढ़ते हुए 1989 तक चलता रहा. 1963 में स्वर्ण नियंत्रण नियम लागू होने के बाद स्वर्ण नियंत्रण अधिनियम 1968 के अंतिम प्रावधानों को स्थापित किया गया. स्वर्ण के कारोबार पर अनेक अतिरिक्त प्रतिबन्ध थोपे गए.
इन कानूनों के कुछ अनभिप्रेत परिणाम हुए. चूंकि स्वर्ण बुलियन रखने के लिए लाइसेंस ज़रूरी हो गया था, अनेक सुनार, जो प्रतिष्ठानों से जुड़े नहीं थे, रातों-रात उनकी आजीविका चली गयी. लगभग सभी स्वर्णकार सुनार जाति से आते हैं और इस जाति पर जो सामाजिक संकट उत्पन्न हुआ वह काफी बड़ा था. प्रतिबन्ध के चलते स्वर्ण की तस्करी भी बढ़ गयी और स्वर्ण के कारोबार में एक विशाल काला बाज़ार खडा हो गया.
स्वर्ण सम्बन्धी नीतिगत चुनौतियां वहीं समाप्त नहीं हुईं. सरकार ने 1966 में भारतीय सुरक्षा कानून लागू किया एक तरह से, नशीले पदार्थों और आतंक पर आधुनिक दौर के हमलों की याद दिलाता है. इन नियमों के अंतर्गत पहले प्रतिबंधित किये गए 14 कैरट से अधिक के स्वर्ण से आभूषण निर्माण की अनुमति फिर से दे दी गयी, लेकिन व्यक्तिगत तौर पर स्वर्ण की छडें और सिक्के रखने पर पाबंदी लगी रही. घर में स्वर्ण आभूषणों रखने की निर्धारित सीमा का पालन और घोषणा करना ज़रूरी था. स्वर्ण के परिशोधन पर सरकारी प्राधिकारी की चौकसी में सख्त नियंत्रण स्थापित था.
1969 में, इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में भारत सरकार ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और लगभग सभी चीजों के लिए लाइसेंस अनिवार्य कर दिया. यह भारत में “लाइसेंस राज” की शुरुआत थी जिसके चलते अर्थव्यवस्था में अफसरशाही का बोलबाला बेहिसाब बढ़ गया और सभी स्तरों पर बेलगाम भ्रष्टाचार के रास्ते खुल गए.
1970 का दसक राजनीतिक रूप से और ज्यादा उथल-पुथल से भरा था. 1975 से 1977 तक आपातकाल लागू था जिसके अंतर्गत प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी के हाथों में तानाशाही सत्ता जैसे शक्ति आ गयी थी. सरकार ने आय तथा संपत्ति के स्वैच्छिक घोषणा (संशोधन) अध्यादेश (1975) प्रस्तुत किया जिसका उद्देश्य भारतीय परिवारों को स्वर्ण सहित तब तक की अघोषित संपत्ति का खुलासा करने के लिए उत्साहित करना था. दुर्भाग्य से, लोगों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया.
1977 में लोकतंत्र की पुनर्स्थापना के बाद, श्रीमती गाँधी की सत्ता चली गयी और पूर्ववर्ती दसक में स्वर्ण नियंत्रण क़ानून लागू करने के लिए मशहूर मोरारजी देसाई प्रधानमन्त्री बने. किन्तु आम लोगों पर बोझ कम नहीं हुआ, सीमान्त कर दरें 95 प्रतिशत के अविश्वसनीय स्तर पर पहुँच गयी और रुपये का मूल्य तेजी से नीचे गिर गया. इस तरह, इससे एक महत्वपूर्ण सीख मिलती है : बहुत नियंत्रण के परिणाम अच्छे नहीं होते हैं.