Published: 27 सितंबर 2017
भारतीय स्वर्ण-अर्थशास्त्र
भारत में स्वर्ण का अर्थशास्त्र एक जटिल विषय है. भारत कई वर्षों से – यहाँ तक कि दशकों से – स्वर्ण का सबसे बड़ा उपभोक्ता बना हुया है. विगत पांच वर्षों में, भारत ने करीब 4500 टन स्वर्ण का आयात किया है. यह मूल्यवान पीला धातु, इससे जुड़े सुरक्षा के अहसास के कारण भारतीय समाज में मन में गहरा बसा हुआ है. असल में, स्वर्ण कई पीढ़ियों से बचत और निवेश का स्वाभाविक साधन बना हुआ है. क्या अमीर, क्या गरीब, आप हर किसी के निवेश में इसकी चमक देख सकते हैं.
भारत में स्वर्ण की सबसे अधिक, यानी 70 प्रतिशत से अधिक खपत आभूषण उद्योग में होती है. भारत में लगभग 4,00,000 आभूषण कारोबारी हैं, और उनमें से लगभग सभी के सभी अनौपचारिक क्षेत्र में व्यवसाय कर रहे हैं.
भारतीय लोगों के बीच स्वर्ण के प्रति इस ललक के कारण इसकी आपूर्ति कठिन हो गयी है – न केवल हर परिस्थिति में इसकी मांग अधिक रहती है, बल्कि इसकी कीमत भी काफी हद तक लोचहीन होती है, जिसका नतीजा यह होता है कि स्वर्ण का भाव बढ़ने पर भी इसकी मांग में बहुत फर्क नहीं पड़ता है. इसका यह अर्थ भी है कि लोग दूसरी वित्तीय सम्पादाओं की संभावना के प्रति उदासीन है.
भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग परिसंघ (फिक्की) द्वारा 2013 में, वर्ल्ड गोल्ड कौंसिल द्वारा प्रकाशित आकड़ों के प्रयोग से किये गए एक सर्वेक्षण से पता चला कि उपभोक्ता स्वर्ण को अनिश्चितता के विरुद्ध सुरक्षा मानते हैं. लोग स्वर्ण खरीदते रहते हैं, भले ही शेयर बाज़ार चढ़ाव पर हो या उतार पर. असल में, फिक्की से सर्वेक्षण में 22 प्रतिशत प्रतिभागियों ने कहा कि वे बाज़ार में अस्थिर माहौल के बीच भी स्वर्ण खरीदना चाहेंगे. स्वर्ण घरों के नियमित खर्च का हिस्सा है. दैनिक खपत में आभूषण और सिक्कों की खरीदारी का अनुपात 8 प्रतिशत है, जो चिकित्सीय या शैक्षणिक खर्च से थोड़ा ही कम है.
स्वर्ण उद्योग में 2.5 मिलियन से अधिक लोगों को रोजगार मिला हुआ है और भारत के निर्यात में इसका महत्वपूर्ण योगदान है. 2012 में स्वर्ण आभूषणों का कारोबार 18.28 बिलियन डॉलर का था, जो 18.05 बिलियन डॉलर के कारोबार वाले हीरे और अन्य बहुमूल्य रत्नों से अधिक है. विश्व्यापी परामर्शी कम्पनी, प्राइस वाटरहाउसकूपर की 2013 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में स्वर्ण का अनुमानित अंशदान 30 बिलियन डॉलर का था.
स्वर्ण अर्थतंत्र की जटिलता – अगर हम ऐसा माने तो – नीति निर्धारकों के सामने चुनौती खड़ी करती है, किन्तु इससे यह प्रश्न भी पैदा होता है : क्या हमें अर्थव्यवस्था में स्वर्ण की भूमिका के विषय में अपनी धारणाओं पर दोबार विचार करना चाहिए ? अधिकांशतः, इस प्रश्न का उत्तर ‘हाँ’ में ही होगा.