Published: 20 फ़रवरी 2018
खेल में स्वर्ण का प्रयोग
स्वर्ण जीतना है – खेल से सन्दर्भ में कितनी बार हमने यह वाक्य या इसके रूपांतर सुने हैं? ऐथलीट या खिलाड़ी और महिलाएं हर समय इस बारे में बात करतीं हैं. दैनिक अखबारों में इनकी सुर्खियाँ भरी रहती हैं. खेल में स्वर्ण एकदम सहज ढंग से जीत का पर्याय बन गया है.
अधिकतर खेलों में ओलिंपिक पदक प्रणाली के अनुसार उपलब्धियों पर पुरस्कार दिया जाता है – विजेता के लिए स्वर्ण, द्वितीय स्थान के लिए रजत और तृतीय स्थान के लिए कांस्य. कुछ खेलों में ऐसा नहीं भी होता है, जैसे कि विंबलडन, या फार्मूला वन ब्रिटिश ग्रैंड प्रिक्स में विजेता को स्वर्ण ट्राफी दी जाती है. ये पूरा स्वर्ण नहीं होते, यहाँ तक कि ओलिंपिक के पदकों में भी पूरा स्वर्ण नहीं होता है, बल्कि उनपर सोने का पानी चढ़ा कर स्वर्ण जैसा स्वरुप दिया जाता है, और इस तरह इसका महत्व बना रहता है.
किन्तु हमेशा से ऐसा नहीं था. स्वर्ण हमेशा से उपलब्धि का पैमाना नहीं था, यहाँ तक कि ओलंपिक्स में भी नहीं. प्राचीन खेल आयोजनों में केवल विजेता का सम्मान किया जाता था और उसे जैतून की माला (ओलिव रीथ) से पुरस्कृत किया जाता था. 1896 में प्रथम आधुनिक ओलिंपिक खेल में विजेता को रजत पदक और द्वितीय स्थान पाने वाले को ताम्बे का पदक दिया गया, जबकि तृतीय स्थान पाने वाले प्रतियोगी को कुछ नहीं मिला. स्पष्टतया, इस्तेमाल के लिए स्वर्ण काफी मंहगा था.
प्रथम तीन स्थानों के लिए क्रमशः स्वर्ण, रजत और कांस्य पदक देने का रिवाज 1904 में संयुक्त राज्य अमेरिका के सेंट लुईस, मिसौरी में आयोजित ग्रीष्मकालीन ओलिंपिक से आरम्भ हुआ था. तब से यह परम्परा चली आ रही है और अंतर्राष्ट्रीय ओलिंपिक समिति (आइओसी) ने पूर्व क्रियाकलाप के अनुसार खेलों के प्रत्येक प्रतियोगिता में तीन शीर्ष स्थान के खिलाड़ियों के लिए स्वर्ण, रजत और कांस्य पदक निर्धारित किया है. पूर्णतः स्वर्ण से बने पदक अंतिम बार 1912 के ओलिंपिक खेल में दिए गए थे.
अंतर्राष्ट्रीय ओलिंपिक समिति ने नियम बनाया है कि प्रत्येक स्वर्ण पदक में न्यूनतम 92.5% चांदी की मात्रा और कम से कम 6 ग्राम स्वर्ण होना चाहिए. लन्दन 2012 खेलों के अनुरूप एक घटक के रूप में ताम्बे का पुनः प्रयोग किया जा रहा है. रिबन में प्रयुक्त आधा प्लास्टिक, जिसे मैडल के साथ खिलाड़ी के गले में पहनाया जाता है, पुनर्चक्रित बोतलों से बना होता है.